एक कविता उठाता हूँ - ज्ञानेंद्रपति

एक कविता उठाता हूँ

एक कविता उठाता हूँ
जिस तरह कोई झुककर सड़क पर से
एक गिरा पड़ा सिक्का उठाता है, कुछ-कुछ खुश

झुककर देखता हूँ
पतली-सी पगडंडी पार करता हुआ वह नन्हा-सा कीड़ा
अपनी पीठ पर अनंत आकाश उठाए है
किनारे-किनारे उगी हुई झड़ियों में लगता है उसका रहवास है
आषाढ़ की विलंबित वर्षा ने आखिर जिन्हें हरिया दिया है
वहां कहीं उसका कुटुंब है, उसके सगे-संबंधी,
उसी के-से रंग-रूप वाले
मुंतजिर उसके
लेकिन उसकी चाल में कोई जल्दी नहीं
अपने त्वर-तत्पर पारदर्शी पंखो को उसने विश्राम की मुद्रा में समेत रखा है
आकाश की नीलाई जमकर उसकी पीठ पर जामुनी हो गई है
अपनी पीठ पर अब वह मेरी दीठ को भी लिए जा रहा है

जाओ प्यारे! न्यारे!
दिखती दुनिया में अनदिखती दुनिया में जाओ
अपनी झलक में झलकती कविता
सौपकर मुझे !

ज्ञानेंद्रपति


ek kavita uthata hun

ek kavita uthata hun
jis tarah koi jhukkar sadak par se
ek gira pada sikka uthata hai, kuchh-kuchh khush

jhukkar dekhta hun
patli-si pagdandi paar karta hua wah nanha sa keeda
apni peeth par anant aakash uthae hai
kinare-kinare ugi hui jhadiyon me lagta hai uska raswaas hai
aashaadh ki vilambit warsha ne aakhir unhe hariya diya hai
wahan kahin uska kutumb hai, uske sage-sambandhi,
usi ke-se rang-roop wale
muntzir uske
lekin uski chaal me koi jaldi nahin
apne twar-tatpar pardarshi pankho ko usne vishram ki mudra me samet rakha hai
aakash me neelai jamkar uski peeth par jamuni ho gai hai
apni peeth par ab wah meri deeth ko bhi liye ja raha hai

jao pyare! nyare!
dikhti duniya me andikhati apni duniya me jaao
apni jhalak me jhalkati kavita
saupkar mujhe!
- Gyanendrapati

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