दूसरे का घर - धूमिल
कौन-सी आत्मीयताठहराव का कौन-सा बहाना ढूँढ़ते हुए
तुम यहाँ आते हो रोज़?
वही ख़ुफ़िया आँखें
वही आत्माएँ बूढ़ी खूँखार
यहाँ भी तुम्हें घूरती हैं जो न जाने कब से
सड़क पर तुम्हारा पीछा कर रही थीं
तुम्हारी जेब में क्या है? प्यार?
उसे बाहर गली में फेंक दो।
यह दूसरे का घर है—
और शहर की ज़ुबान में
तुम्हारी भाषा और उम्मीद के बीच
वे काठ का एक टुकड़ा रख देंगे
या फिर एक प्याली गर्म चाय—
‘पियो जी कवीजी मराज!’
सोचते क्या हो? अपनी शर्म में डूब
मरने का कोई दूसरा उपाय?
ढूँढ़ लो,
हो चुके हो तुम बाज़ार से बाहर
तुम्हारे नाख़ून बहुत छोटे हैं और होने के बाद भी
तुम पशु बनने को तैयार नहीं हो।
तुम्हारे चेहरे से आज भी आदमीयता की गंध
आती है।
क्या कहा-दया? लेकिन याद क्यों नहीं करते-
दया का एक रुख़ हाय! यह भी है कि जो जाति
ठंड के माक़ूल दिनों में आदमी का ख़ून
खींच लेती है, गर्मी के ‘मौसम’ में
पौसरा चलाती है।
और यह दूसरे का घर है,
और
तुम्हारा दोष यह है कि तुम सब कुछ समझते हो—
दाँत और सिक्के में कौन-सा रिश्ता है?
दीवारों की मातृ-भाषा क्या है?
~ धूमिल