मोहब्बतों का शायर जिगर मुरादाबादी और उनकी शायरी

मोहब्बतों का शायर जिगर मुरादाबादी और उनकी शायरी

मोहब्बतों का शायर जिगर मुरादाबादी और उनकी शायरी

अली सिंकदर जिन्हें हम जिगर मुरादाबादी के नाम से जानते है आपकी पैदाइश 6 अप्रेल 1890 को मुरादाबाद में हुई | आपके पिता मौलाना अली 'नज़र' भी शायर थे जो कि खुद ख्वाजा वजीर दहेलवी के शिष्य थे | आप एक शायर खानदान में पैदा हुए आपके दादा हाफ़िज़ मुहम्मदनूर 'नूर' भी शायर थे। आपने अपनी प्रारंभिक शिक्षा तो पूरी कर ली थी परन्तु अपनी नासाज़ तबियत और घरेलु परेशानियों के चलते आप आगे कि पढाई पूरी न कर सके | पर अपने शौक के चलते आपने घर पर ही फ़ारसी सीख ली थी | आपने लगभग तेरह वर्ष की उम्र में ही शे'र कहने शुरू कर दिए थे |

आपकी शिक्षा नाममात्र की ही थी सो गुजर बसर करने के लिए स्टेशन पर चश्मे बेचा करते थे |

जिगर पहले मिर्ज़ा दाग देहलवी के शिष्य थे। बाद में ‘तसलीम’ के शिष्य हुए। इस समय की शायरी के नमूने 'दागे़-जिगर' में पाये जाते हैं। असग़र गोंडवी की संगत के कारण आप के जीवन में बहुत बड़ा परिवर्तन आया।

जिगर मुरादाबादी को आप वो शायर कह सकते है जिसने इश्क कियां तो टूटकर किया और फिर जब इश्क में इस कदर टुटा कि सहारे को शराब के सिवा और कुछ न सुझा और यही शराबनोशी आपके समालोचको को खलती थी | आप शराब इस हद तक शराब पीते थे कि यदि दस व्यक्ति भी उम्र भर पिए तो भी उतनी न पी पाए जितनी जिगर कुछ ही सालो में पी गए | आपकी शायरी में जो इश्क, दर्द, शराब और हुस्न आता है उसकी बात ही कुछ और है |

उनका पहनावा भी शुद्ध भारतीय था आपने कभी कोट पतलून नहीं पहना | बालो वाली ऊँची काली टोपी और शेरवानी पहनते थे | गर्मियों में बारिक मलमल का कुर्ता और अलीगढ़ फेशन का तंग मुहरी का पायजामा पहनते हे |
जिगर साहब का अंदाजे-बयां कुछ इस कदर बाकमाल था कि उस समय के शायर उन्हें पूरी तरह से अपने भीतर उतारने की कोशिश करते थे और उन्ही की तरह दाढ़ी, जुल्फे और यहाँ तक कि अपने रहन सहन को भी उन्ही की तरह करने की कोशिश करते और साथ ही साथ शराबनोशी भी |

जिगर मुशायरों में भी शराब पीकर ही आते थे फिर भी मुशायरा लुट ले जाते थे शक्ल तो खुदा ने ठीक दी थी नहीं पर उनके शेरो में जादू था | उर्दू के मशहूर हास्य लेखक शौकत थानवी ने ठीक ही लिखा है कि "शे'र पढते समय उनकी शक्ल बिलकुल बदल जाती थी , उनके चेहरे पर एक लालित्य आ जाता था | एक सुन्दर मुस्कान, एक मनोहर कोमलता और सरलता के प्रभाव से जिगर साहब का व्यक्तित्व किरने सी बिखेरने लगता था |"
उनका ये शे'र देखिए
सबको मारा जिगर के शेरों ने।
और जिगर को शराब ने मारा।।
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मुझे उठाने को आया है वाइज़े-नादां,
जो उठ सके तो मेरा साग़रे-शराब उठा
किधर से बर्क़ चमकती है देखें ऐ वाइज़,
मैं अपना जाम उठाता हूं, तू किताब उठा।

जिगर साहब बड़े हसमुख मिजाज़ और बड़े दिलवाले थे इसी कारण से वे साहित्य के प्रगतिशील आन्दोलन का भरसक विरोध करने पर भी आपने मजाज़, जज्बी, मजरूह सुल्तानपुरी इत्यादि बहुत से शायरों को प्रोत्साहन दिया और प्रगतिशील लेखक संघ के निमंत्रण पर अपनी जेब से किराया खर्च करके सम्मेलनों में योग देते रहे | ये उनका हसमुख मिजाज़ ही था कि वे मुशायरों में नौजवान शायरों के साथ भी हसी ठिठोली कर लिया करते थे |

एक बार आगरे की तवायफ वहीदन से इश्क़ कर बैठे, शादी की और शादी के दो वर्षों के भीतर ही वे चल बसी । यहां से छूटे, तो मैनपुरी की एक गायिका शीरज़न से दिल लगा बैठे, आख़िर इस मोहब्बत का अंजाम भी पहले की दीगर मुहब्बतों जैसा हुआ। बारहा ठोकरों के बावजूद ये 'जिगर' का ही जिगर था, जो न इश्क़ से ग़ाफ़िल हुए, न हुस्न से बेपरवाह। एक बार मशहूर गायिका अख़्तरी बाई फैजाबादी (बेगम अख़्तर) के शादी के पैग़ाम को भी 'जिगर' ठुकरा चुके थे।

जिगर साहब की शादी उर्दू के प्रसिद्द शायर असगर गोंडवी साहब की छोटी साली नसीम से हुई थी पर शराबनोशी के चलते उनकी माली हालत काफी बिगड़ चुकी थी उन्हें शराब और अपनी पत्नी में से किसी एक को चुनना था उन्होंने शराब को चुना सो फिर असगर साहब ने जिगर साहब से तलाक दिलवा दिया और अपनी गलती को सुधारने के लिए असगर साहब ने भी अपनी पत्नी को तलाक दे दिया और अपनी साली नसीम को अपनी पत्नी बना लिया था | असगर साहब के देहांत के बाद जिगर साहब ने उसी महिला से दोबारा शादी कर ली |

जिगर इश्क में कुछ इस कदर डूबे कि वे इश्क और मश्क के तहजीबी शायर बन गए वो इश्क का ताप ही था जो उनकी ग़ज़ल में नज़र आता है आप जिंदगी भर मोहब्बत की पूजा करते रहे आप मिलन के नहीं जुदाई के शायर थे
यह इश्क नहीं आसां, इतना ही समझ लीजे
इक आग का दरिया है, और डूबके जाना है |
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मुहब्बत ही अपना मज़हब है लेकिन,
तरीके मुहब्बत जुदा चाहता हूँ |
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न जाने मुहब्बत है क्या चीज
बड़ी ही मुहब्बत से हम देखते है
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न गरज़ किसी से न वास्ता, मुझे काम अपने ही काम से
तेरे ज़िक्र से तेरी फ़िक्र से तेरी याद से तेरे नाम से
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आए जुबां पे राजे मोहब्बत मुहाल है
तुमसे मुझे अज़ीज़ तुम्हारा ख्याल है
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वह थे न मुझे दूर न मै उनसे दूर था
आता न था नज़र तो नज़र का कुसूर था
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मेरे कमाले शेर बस इतना है ऐ जिगर
वह मुझपे छा गए मै ज़माने में छा गया

जिगर खुद राजनीति से बहुत दूर रखते थे उनका एक शेर है
इनका जो फ़र्ज़ है वह पहले अहले सियासत जाने
मेरा पैगाम मुहब्बत है जहाँ तक पहुचे

जिगर के समकालीन शायरों में फ़िराक गोरखपुरी, यगाना चंगेजी, फानी बदायुनी और असगर गोंडवी प्रमुख थे पर शायरी के लिहाज से वे हसरत मोहानी के करीब महसूस होते है | जिगर जीते-जागते लम्हों को शायरी में किस कदर पिरो लेते है इस बानगी देखिए
सामने सबके मुनासिब नहीं हम पर यह इताब
सर से ढल जाये न गुस्से में दुपट्टा देखो
वाद-ए-वस्ल को हंस हंस के न टालो देखो
तुमने फिर आज निकला वही झगडा देखो
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तेरी खुशी से अगर गम में भी खुशी न हुई
वह जिंदगी तो मोहब्बत कि जिंदगी न हुई
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इधर से भी है सिवा कुछ उधर कि मज़बूरी
कि हमने आह तो की उनसे आह भी न हुई

उनकी मोहब्बत धीरे धीरे ईश्वरीय प्रेम में बदल रही थी
जिस रंग में देखा उसे, वह पर्दानशी है
और उसपे यह पर्दा है कि पर्दा ही नहीं है
हर एक मकां में कोई इस तरह मुकीं है
पूछो तो कही भी नहीं, देखो तो यही है |

महबूब मेरा हमेशा मेरे साथ है उसे ये तुच्छ आँखे देख नहीं सकती
इस तरह न होगा कोई आशिक भी तो पाबंद
आवाज़ जहाँ दो उसे वोह शोख वही है

हमेशा वो मेरे साथ ही नहीं बल्कि रोम रोम में बसा हुआ है
आँखों में नूर, जिस्म में बनकर वोह जाँ रहे
यानि हमी में रहके, वोह हमसे निहां रहे

इस महबूब ने सुख ही दुःख भी मेरे साथ बर्दाश्त किया है
हरचंद वक्ते-कश-म-काश-दो जहाँ रहे
तुम भी हमारे साथ रहे, हम जहां रहे

मोहब्बते-इज़हार पर कहते है कि
क्या हुस्न का अफसाना महदू हो लफ्जों में
आँखे ही कहे उसको, आँखों ने जो देखा है

और महबूब की रहने की जगह
जो न काबे में है महदूद न बुतखाने में
हाय वोह और एक उजड़े हुए काशाने में

उनके अंदाज-ए-बयां को देखते हुए पकिस्तान की तरफ से उन्हें कई बार हिन्दुस्तान छोड़कर पकिस्तान आने को कहाँ गया पर उन्होंने शाह अब्दुलगनी और असगर की मजारो के देश को छोड़ने से इनकार कर दिया |

जिगर साहब का पहला दीवान "दाग़े-जिगर" 1921 में प्रकाशित हुआ। उसके बाद दूसरा दीवान "शोला-ए-तूर" 1923 में अलीगढ़ की मुस्लिम यूनिवर्सिटी में छपा। 1958 में कविता-संग्रह "आतिशे-गुल" सामने आया। "आतिशे-गुल" को साहित्य अकादमी द्वारा 1959 में उर्दू भाषा की सर्वश्रेष्ठ कृति के रूप में पुरस्कृत किया गया।

यह शायद उनकी अच्छा इंसान बनने की ललक ही थी कि उन्होंने शराब छोड़ दी और मरते दम तक शराब को हाथ नहीं लगाया | इस बारे में वे खुद कहते थे - "जब मैंने शराब से तौबा की तो खुदा से अपने इरादे की पुख्तगी की दुआ भी मांगी शराब छोड़ते ही सख्त बीमार पड़ गया | जिंदा बचने कि कोई सूरत न थी | डाक्टर और दोस्त कहते थे कि अब गया कि अब | दिल के ऊपर एक बड़ा ही खतरनाक किस्म का फोड़ा भी निकल आया था | डाक्टरों ने बताया कि एकदम शराब छोड़ देने से यहाँ बला हुई है और साथ ही यह मशविरा दिया कि अगर मै फिर शराब पीनी शुरू कर दू तो आया वक्त टल सकता है | यह वक्त मेरे इम्तिहान का वक्त था | मैं डाक्टरों से साफ कह दिया कि इंसान के नसीब में जब मौत एक बार ही लिखी है तो खुदा से शर्मसारी क्यों हो | यह कुदरत का करिश्मा ही था कि मुझे आराम आ गया, या यह समझिए कि मेरे इरादे की पुख्तगी पर कुदरत को तरस आ गया |"

शराब जो छोड़ी तो फिर बेतहाशा सिगरेट पीने लगे फिर सिगरेट भी छोड़ दी और उसके बाद बेतहाशा ताश खेलने लगे |
जिगर साहब कहते है
हमको मिटा सके, यह ज़माने में दम नहीं,
हमसे ज़माना ख़ुद है, ज़माने से हम नहीं।

जिगर साहब को भूलने की भी आदत थी सो इसे दुरुस्त करने के लिए वे डायरी भी रखा करते थे पर इसी आदत के चलते वे डायरी कहाँ रखी है यह भी भूल जाते थे पर यह उपाय भी काम न किया |

एक बार का किस्सा यों है कि लखनऊ में जिगर साहब का बटुआ गुम हो गया जिसमे लगभग हजार-बारह-सौ रुपये होंगे | इसी बात को लेकर अफ़सोस जताने श्री मोहम्मद तुफ़ैल ( संपादक 'नुकूश', लाहौर) उनके पास पहुचे और पूछ बैठे - " आपको कुछ पता नहीं चला कि बटुआ कैसे और कहाँ गुम हो गया?"

इस पर उनका जवाब था कि "मुझे सब मालूम है। कल एक साहब से चलते-चलते मुलाकात हुई थी, उन्होंने बड़ी नियाज़मंदी का इज़हार किया। मैंने सोचा, कोई मिलने वाला होगा। मैंने बाज़ार से कुछ सामान ख़रीदा और तांगे में बैठकर यहां आ गया। रास्ते में उन साहब ने मेरी जेब में से कुछ निकाला। मैंने सोचा कि मुझे बदगुमानी हुई होगी, वर्ना ऐसा तो हो ही नहीं सकता। और जब जेब टटोली, तो बटुआ ग़ायब था। मैंने अपना बटुआ उनके पास अपनी आंखों से भी देख लिया, लेकिन उनसे कुछ कहा नहीं। "

उन्होंने पूछा "वह क्यों?" तो जिगर साहब का जवाब था कि "अगर मै उनसे कहता कि मेरा बटुआ आपने चुरा लिया है तो उस वक्त जो उन्हें पशेमानी होती, वह मुझसे न देखी जाती |"

एक और किस्सा है
एक बार एक महफ़िल में 'जिगर' साहब शेर सुना रहे थे। पूरी महफ़िल उनके शेर पर ज़बरदस्त दाद दे रही थी, लेकिन एक साहब शुरू से आख़िर तक चुपचाप बैठे रहे। मगर आख़िरी शेर पर उन्होंने उछल-उछलकर दाद देनी शुरू कर दी। इस पर 'जिगर' साहब ने चौंककर उनकी ओर देखा और पूछा-
"क्यों साहब, क्या आपके पास कलम है?"
उस आदमी ने जवाब दिया, "जी हां! है, क्या कीजिएगा?"
इस पर 'जिगर' ने कहा कि, "मेरे इस शेर में ज़रूर कोई ख़ामी रही होगी, वरना आप दाद न देते। इसे अपनी डायरी में से काटना चाहता हूं।"

एक बार की बात है
इक व्यक्ति ने जिगर साहब से कहाँ - " जिगर साहब, एक महफ़िल में मै आपके एक शेर से पिटते-पिटते बचा |"
इस पर जिगर साहब बोले, "मेरा वह शेर असर के लिहाज़ से जरुर घटिया होगा, वरना आप जरुर पिटते |"
उर्दू ग़ज़ल का ये मोहब्बतों का शायर 9 सितम्बर 1960 को इस दुनिया-ए-फानी से कुंच कर गया और आपने पीछे अपनी शायरी की विरासत को छोड़ गया जिसे पढकर आज भी शायरी चाहने वाले झूम उठते है |
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