हीरा लाल फलक देहलवी और उनकी शायरी
जनाब हीरा लाल फलक़ दिल्ली के रहने वाले थे | और पंडित श्रीकृष्ण शुक्ल आपके गुरु थे सो वे सरल भाषा में और गंगा-जमनी तहजीब में काव्य रचना करते थे | मगर जब उन्हें उर्दू जैसी मीठी जबान का नशा चढ़ा तो आपने बेखुद देहलवी को अपना उस्ताद बनाया और कुछ ग़ज़लियात पर उनसे इस्लाह भी ली मगर अपने फक्कडमिज़ाज होने के कारण बाद में खुद ही मश्क़ करते रहे | बाद में आपने अपने नाम में तखल्लुस देहलवी और जोड़ दिया और शायरी हीरा लाल फलक देहलवी नाम से करने लगे |
आपको उरूज़ और बहर के लिहाज़ से उर्दू ग़ज़ल पर महारत हासिल थी आपको बाबा 'फ़लक' कहा जाता था | किन्ही कारणों से आपने न तो ज्यादा मुशायरो में शिरकत की ना ही उस समय के साहित्यिक पत्रिकाओ में आपकी रचनाए प्रकाशित हुई |
आपका फक्कड़पन ही इन सब का मुख्य कारण रहा होगा | और इसी फ़ाकामस्ती के कारण आपने अपनी काव्य रचनाओ और क़लाम को किसी भी तरह से सहेजकर नहीं रखा जिस कारण से आज कई नौजवान शायर आपका क़लाम तोड़-मरोड़कर पेश कर रहे है |
आपके शागिर्दों में साजन देहलवी, चमन देहलवी, अभिलाष रैना सागर, ओमप्रकाश 'खुशदिल' और हीरालाल 'हीरा' का नाम मुख्य रूप से आता है | कृष्ण कुमार चमन देहलवी आपके सबसे प्रिय शिष्यों में से एक थे |
आपके देहावसान से कुछ समय पहले ही 1982 में आपकी शायरी का दीवान "हर्फ़-ए-सदा' नाम से प्रकाशित हुआ |
आपका 6 अगस्त, 1983 को आप इस दुनिया-ए-फानी से कुच कर गए |
आपकी फ़ाकामस्ती आपकी शायरी में साफ़ झलकती है आपके कुछ शेर पेश है :
देखूँगा किस क़दर तिरी रहमत में जोश है
परवरदिगार मुझ को गुनाहों का होश है
*-*-*-*-*-*
तन को मिट्टी नफ़स को हवा ले गई
मौत को क्या मिला मौत क्या ले गई
*-*-*-*-*-*
अपना घर फिर अपना घर है अपने घर की बात क्या
ग़ैर के गुलशन से सौ दर्जा भला अपना क़फ़स
*-*-*-*-*-*
दिल की बरबादी पे अब रोने से क्या,
सामने किस्मत का लिखा आ गया
*-*-*-*-*-*
फ़लक़ का हाल जब पूछा तो उस काफ़िर ने फ़रमाया
दुआएँ माँगता होगा कहीं पर मौत आने की
*-*-*-*-*-*
बता दिया की बुज़ुज़ दोस्त और भी कुछ है
'फ़लक़' किसी ने मेरी जिंदगी में आ के मुझे
*-*-*-*-*-*
ऐसा भी एक वक़्त था जब जिंदगी न थी
वो दिन गुजर गए है, ये दिन भी गुजार दे
बेमौत न मरे तो फलक़ आदमी ही क्या
वो ग़म नहीं जो मौत से पहले न मार दे
आपको उरूज़ और बहर के लिहाज़ से उर्दू ग़ज़ल पर महारत हासिल थी आपको बाबा 'फ़लक' कहा जाता था | किन्ही कारणों से आपने न तो ज्यादा मुशायरो में शिरकत की ना ही उस समय के साहित्यिक पत्रिकाओ में आपकी रचनाए प्रकाशित हुई |
आपका फक्कड़पन ही इन सब का मुख्य कारण रहा होगा | और इसी फ़ाकामस्ती के कारण आपने अपनी काव्य रचनाओ और क़लाम को किसी भी तरह से सहेजकर नहीं रखा जिस कारण से आज कई नौजवान शायर आपका क़लाम तोड़-मरोड़कर पेश कर रहे है |
आपके शागिर्दों में साजन देहलवी, चमन देहलवी, अभिलाष रैना सागर, ओमप्रकाश 'खुशदिल' और हीरालाल 'हीरा' का नाम मुख्य रूप से आता है | कृष्ण कुमार चमन देहलवी आपके सबसे प्रिय शिष्यों में से एक थे |
आपके देहावसान से कुछ समय पहले ही 1982 में आपकी शायरी का दीवान "हर्फ़-ए-सदा' नाम से प्रकाशित हुआ |
आपका 6 अगस्त, 1983 को आप इस दुनिया-ए-फानी से कुच कर गए |
आपकी फ़ाकामस्ती आपकी शायरी में साफ़ झलकती है आपके कुछ शेर पेश है :
देखूँगा किस क़दर तिरी रहमत में जोश है
परवरदिगार मुझ को गुनाहों का होश है
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तन को मिट्टी नफ़स को हवा ले गई
मौत को क्या मिला मौत क्या ले गई
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अपना घर फिर अपना घर है अपने घर की बात क्या
ग़ैर के गुलशन से सौ दर्जा भला अपना क़फ़स
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दिल की बरबादी पे अब रोने से क्या,
सामने किस्मत का लिखा आ गया
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फ़लक़ का हाल जब पूछा तो उस काफ़िर ने फ़रमाया
दुआएँ माँगता होगा कहीं पर मौत आने की
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बता दिया की बुज़ुज़ दोस्त और भी कुछ है
'फ़लक़' किसी ने मेरी जिंदगी में आ के मुझे
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ऐसा भी एक वक़्त था जब जिंदगी न थी
वो दिन गुजर गए है, ये दिन भी गुजार दे
बेमौत न मरे तो फलक़ आदमी ही क्या
वो ग़म नहीं जो मौत से पहले न मार दे