ग़ालिब के लतीफे
1. एक बार दिल्ली में रात गए ग़ालिब किसी मुशायरे से सहारनपुर से आए हुए मौलाना फैज़ के साथ वापस आ रहे थे | रस्ते में एक तंग गली से गुजर रहे थे की आगे वही एक गधा खड़ा था | मौलाना ने यह देखकर कहा, " ग़ालिब साहब दिल्ली में गधे बहुत है |" " नहीं हजरत बाहर से आ जाते है |" ग़ालिब ने एक दम चुटकी ली | मौलाना झेप कर चुप हो गए |
2. एक बार दिल्ली में वबा (महामारी) फैली | मेरे मेहँदी मजरुह ने, जो मिर्ज़ा ग़ालिब के शार्गिदो में से थे, अपने एक ख़त में पूछा, "हजरत वबा शहर से दफा हुए या अब तक मौजूद है |" ग़ालिब जवाब में लिखते है, "भई कैसी वबा ? जब मुझ जैसे छियासट बरस के बूढ़े और चौसठ बरस की बुढिया (ग़ालिब की बीवी ) को न मार सकी तो लानत है ऐसी वबा पर |"
3. मिर्ज़ा साहब किसी कोतवालकी झूठी रिपोर्टो से कैद हो गए थे | कैद से रिहाई हो जाने के बाद आप अपने एक दोस्त मियां काले साहब के मकाँ में रहने लगे | एक रोज़ मियां के पास बैठे हुए थे की किसी ने आ कर कैद से छुटने की मुबारकबाद दी | मिर्ज़ा ने कहा, "कौन भड़वा कैद से छुटा है ? पहले गोरे (अँगरेज़) की कैद में था अब काले की कैद में हू |"
4.बरसात का खुशगवार मौसम था | नन्ही-नन्ही बुँदे पढ़ रही थी | अम्रियो में झूले पड़े हुए थे | बहादुरशाह ज़फर और उनके मुहासिब (पार्षद), जिनमे मिर्ज़ा ग़ालिब भी शामिल थे, कुदरती फिजा की सैर में मशगुल थे | आम के घने दरख्त तरह-तरह के आमो से लद रहे थे | ग़ालिब की निगाहे आमो से लड़ रही थी | बादशाह ने पूछा इस तरह गौर से इस तरह गौर से क्या देख रहे हो | पीरो-मुर्शिद यह जो किसी बुजुर्ग ने कहा है :-
बर सारे हर दाना बन्विस्ता अयाँ
की ई फलां इब्ने फलां, इब्ने फलां
इसको देखता हू की किसी पर मेरा और मेरे बाप दादा का नाम भी लिखा है याँ नहीं | बादशाह मुस्कुराये और उसी रोज़ एक टोकरी आमो की मिर्ज़ा को भिजवा दी |
5.एक रोज़ मेरे मेहंदी मजरुह बेठे हुए थे और मिर्ज़ा ग़ालिब पलंग पर पड़े हुए करह रहे थे | मेरे मेहंदी पाव दाबने लगे | ग़ालिब ने कहा, " भई तू सय्यद जादा है, मुझे क्यों गुनाहगार करता है |" उन्होंने न माना और कहा, " आपको ऐसा ही ख्याल है तो पैर दाबने की उजरत दे दीजिये |" ग़ालिब ने कहाँ, " हाँ इसमें हरज नहीं |" मेहँदी जब पाँव दाब चुके तो उन्होंने उजरत तलब की | ग़ालिब ने कहाँ, "भैय्या कैसी उजरत | तुम ने मेरे पाँव दाबे, मैंने तुम्हारे पैसे दाबे | हिसाब बराबर हुआ |"
2. एक बार दिल्ली में वबा (महामारी) फैली | मेरे मेहँदी मजरुह ने, जो मिर्ज़ा ग़ालिब के शार्गिदो में से थे, अपने एक ख़त में पूछा, "हजरत वबा शहर से दफा हुए या अब तक मौजूद है |" ग़ालिब जवाब में लिखते है, "भई कैसी वबा ? जब मुझ जैसे छियासट बरस के बूढ़े और चौसठ बरस की बुढिया (ग़ालिब की बीवी ) को न मार सकी तो लानत है ऐसी वबा पर |"
3. मिर्ज़ा साहब किसी कोतवालकी झूठी रिपोर्टो से कैद हो गए थे | कैद से रिहाई हो जाने के बाद आप अपने एक दोस्त मियां काले साहब के मकाँ में रहने लगे | एक रोज़ मियां के पास बैठे हुए थे की किसी ने आ कर कैद से छुटने की मुबारकबाद दी | मिर्ज़ा ने कहा, "कौन भड़वा कैद से छुटा है ? पहले गोरे (अँगरेज़) की कैद में था अब काले की कैद में हू |"
4.बरसात का खुशगवार मौसम था | नन्ही-नन्ही बुँदे पढ़ रही थी | अम्रियो में झूले पड़े हुए थे | बहादुरशाह ज़फर और उनके मुहासिब (पार्षद), जिनमे मिर्ज़ा ग़ालिब भी शामिल थे, कुदरती फिजा की सैर में मशगुल थे | आम के घने दरख्त तरह-तरह के आमो से लद रहे थे | ग़ालिब की निगाहे आमो से लड़ रही थी | बादशाह ने पूछा इस तरह गौर से इस तरह गौर से क्या देख रहे हो | पीरो-मुर्शिद यह जो किसी बुजुर्ग ने कहा है :-
बर सारे हर दाना बन्विस्ता अयाँ
की ई फलां इब्ने फलां, इब्ने फलां
इसको देखता हू की किसी पर मेरा और मेरे बाप दादा का नाम भी लिखा है याँ नहीं | बादशाह मुस्कुराये और उसी रोज़ एक टोकरी आमो की मिर्ज़ा को भिजवा दी |
5.एक रोज़ मेरे मेहंदी मजरुह बेठे हुए थे और मिर्ज़ा ग़ालिब पलंग पर पड़े हुए करह रहे थे | मेरे मेहंदी पाव दाबने लगे | ग़ालिब ने कहा, " भई तू सय्यद जादा है, मुझे क्यों गुनाहगार करता है |" उन्होंने न माना और कहा, " आपको ऐसा ही ख्याल है तो पैर दाबने की उजरत दे दीजिये |" ग़ालिब ने कहाँ, " हाँ इसमें हरज नहीं |" मेहँदी जब पाँव दाब चुके तो उन्होंने उजरत तलब की | ग़ालिब ने कहाँ, "भैय्या कैसी उजरत | तुम ने मेरे पाँव दाबे, मैंने तुम्हारे पैसे दाबे | हिसाब बराबर हुआ |"