रज्जन चाचा आज डब्बू के आपरेशन को एक साल होने को है। डाक्टर की सलाह के कारण शुरूआत से आराम कर रहा डब्बू अब पूरी तरह से थक चुका था। सोचते सोचते उसकी नीं
रज्जन चाचा
आज डब्बू के आपरेशन को एक साल होने को है। डाक्टर की सलाह के कारण शुरूआत से आराम कर रहा डब्बू अब पूरी तरह से थक चुका था। सोचते सोचते उसकी नींद लग गई। उसकी पत्नी ने भी कमरे की सारी लाइट बंद कर दी और फिर धीरे से चद्दर उड़ा दिया। गहरी नींद में जाते ही डब्बू सपनों की दुनिया में खो गए।
यूं थे तो वो भी एक आम आदमी लेकिन भतीजे भतीजियो ने उन्हे रज्जन चाचा बना दिया। स्वाधीनता संग्राम सेनानी के यहाँ जन्में राजेंद्र का बचपन बहुत संघर्ष से गुजरा, पांच भाईयों और एक बहन के बीच उनका नम्बर चौथा था। न बड़ो में गिनती थी और न छोटे भाई जैसा लाड प्यार पा सके। स्वाभिमानी पिता के आकस्मिक देहांत से, उन्हे समय से पहले बड़ा कर दिया। दो बड़े भाईयों की सरकारी नौकरी लग गई और वे दोनो बड़े भाई घर से पृथक हो गए। राजेन्द्र से बड़े भाई ने स्वर्गीय पिता की पत्रकारिता को आगे बढ़ाना शुरु कर दिया था और फिर वे भी एक पत्रकार बन गए थे । अब राजेंद्र को छोटे भाई, बहन और मां का ख्याल भी रखना था, पढ़ाई भी करना थी और साथ साथ बड़े भाई के साथ घर को भी चलाना था। वक्त बदला और समय के साथ राजेंद्र ने अपनी कालेज की पढ़ाई पूरी की। अब चाह थी कोई अच्छी नौकरी की।
संघर्षपूर्ण जीवन में राजेंद्र ने राज्य परिवहन में कंडक्टर की नौकरी भी की और कालेज के बगीचे में माली का काम भी किया और अंततः उसकी मेहनत रंग लाई और एक दिन राजेंद्र को जिसकी चाह थी, वही हुआ। राजेंद्र अब राज्य लोक सेवा आयोग की परीक्षा पास कर सेल्स टेक्स इंस्पेक्टर बन गए। घर की परिस्थिति भी अब सुधरने लगी थी । भरे पूरे घर में भतीजे भतीजियो की चहल पहल भी गूंजने लगी थी। चूँकि राजेन्द्र अब सरकारी नौकरी में आ गये थे इसलिए सबकी चाहते बढ रही थी और अब राजेंद्र भी भतीजे भतीजियो के रज्जन चाचा बन गए थे। कुछ भतीजे भतीजी उन्हे बड़े चाचा भी कहकर पुकारते थे। बड़ी भतीजी के ब्याह में उन्होने न जाने कितने कपड़े दिये, यह बात बहुत गर्व से उनकी मां हम सब नाती नातिनो को बड़े चाव से सुनाया करती थी। मंझले और संझले भाइयों की बेटियों की शादियों में उन्होने उस जमाने में लोहे की आलमारी दी जब उसे खरीदना आम आदमी का एक सपना हुआ करता था।
सबसे बड़ी बात तो यह थी कि दीपावली का त्योहार पूरा घर एक साथ मिलकर मनाया करता था और उस मौके पर सबको इंतजार रहता था सबके प्यारे " रज्जन चाचा " का। त्योहार से भी ज्यादा इंतजार रज्जन चाचा का हुआ करता था और होता भी क्यों न, रज्जन चाचा अपने साथ लाते थे, दो तीन बड़े बड़े थैले भरकर पटाखे, जो लक्ष्मी पूजन के बाद सबको बांटे जाते थे। समाजवादी तरीके से सबको बराबर बराबर पटाखे बांट कर दीपावली का पूरा आनंद लिया जाता था।
रज्जन चाचा के एक भतीजे ,जो उनके सबसे प्रिय हुआ करते थे, बताया करते थे कि उनके रज्जन चाचा के पास एक साइकिल हुआ करती थी जिसमें आगे टोकरी लगी हुआ करती थी, चाचा की जहां भी पोस्टिंग हुआ करती थी, मैं गर्मी की छुट्टियों में वहां जाया करता था, चाचा मुझे किराए की साइकिल दिला दिया करते थे लेकिन मैं चाचा की टोकरी वाली साइकिल ही चलाया करता था और चाचा को किराए की साइकिल चलाना पड़ती थी। गर्मी की छुट्टियां खत्म हुई, मैं वापस अपने घर आने की तैयारी कर रहा था, तभी चाचा ने पूछा कि अन्नू तुमको मैं हमेशा किराए की साइकिल दिलाया करता था और तुम मेरी साइकिल ले जाते थे, इसका राज तो बताओ। न चाहते हुए भी मुझे बताना पड़ा कि चाचा जी, इस छोटे से शहर में आपकी साइकिल जैसी बहुत कम साइकिल है और टोकरी लगी तो साइकिल एकाध ही होगी। जब भी मैं कहीं कोई चीज खाता पीता हूं, दुकानदार आपकी टोकरी लगी साइकिल को देखकर मुझसे पेमेंट नही लेते हैं।
अब रज्जन चाचा भी बड़े हो गए थे तो उनकी मां ने उनकी भी शादी धूमधाम से कर दी। फैमिली वाले होने के बावजूद भी रज्जन चाचा के दीवाली वाले थैले काफी सालों तक दीपावली की रौनक बनते रहे। समय धीरे धीरे अपनी गति से बीत रहा था, रज्जन चाचा भी अब चार बच्चों के पिता बन गए थे। तभी अचानक परिवार पर एक वज्रपात हुआ। रज्जन चाचा की जीवनसंगिनी , जिसे वो रजनी कहकर बुलाया करते थे, उनका एक छोटी सी बीमारी से देहांत हो गया और सदैव खुश रहने वाले रज्जन चाचा अब बिल्कुल अकेले हो गए। बच्चों ने हर तरीके से उन्हे खुश रखना चाहा लेकिन तभी उन पर एक और दुख का पहाड़ टूट पड़ा। यूनिवर्सिटी में पढ़ाई कर रही उनकी एकमात्र पुत्री का एक एक्सीडेंट में निधन हो गया। नितांत अकेले हो गए रज्जन चाचा । पत्नी के देहांत के बाद नाते रिश्तेदारों ने उनसे दूसरी शादी करने का भी दबाव डाला जिसे उन्होने एक दम खारिज कर दिया।
समय शनैशनैः बीतता जा रहा था। रज्जन चाचा के तीनो बच्चे भी बड़े हो गए थे। बड़े धूमधाम से उन्होने अपने तीनो लड़को की शादी की। जो घर कभी वीरान रहा करता था वहा अब तीन-तीन बहुओं की चहल पहल शुरू हो गई थी। समय पर रज्जन चाचा अब दादू की श्रेणी में आ गए थे। तीनो बहुओ ने उनकी लम्बी समय से छाई उदासी दूर कर दी थी। नाती नातिनो के धूम-धड़ाके से सारा घर और सारी कालोनी गूंजती रहती थी। रज्जन चाचा की पटना पोस्टिंग के दौरान उनके पैतृक घर के मूल कागज को प्राप्ति से लेकर मृत्यु पर्यन्त बंटवारे को लेकर लगे रहे, यहां तक कि एक बार उनके बड़े बेटे डब्बू ने उनसे कहा कि पटना के घर को लेकर आप इतने तनाव में रहते हो, क्यों न सारे भाइयों के विरुद्ध कोर्ट केस दाखिल कर दिया जाए तो उन्होंने डब्बू को सरेआम डांट-फटकार लगा दी और कहा था कि बंटवारा हो या नही हो , मेरे जीते जी मेरे भाईयों के विरुद्ध ऐसी कोई बात मन में भी नहीं लाना।
शनैः शनैः सभी भाई उम्रदराज होने लगे। सबसे बड़े भाई की मृत्यु तो काफी पहले हो गई थी। तीन भाई, मां, भाभियों का बिछुड़ना लगातार लगा रहा। रज्जन चाचा के परिवार में उनकी बहन और छोटे भाई की पत्नी बची हैं। लेकिन रज्जन चाचा जैसा दिलदार, भतीजे भतीजियो पर प्यार लुटाने वाला तो इस पीढी में कोई नही है। प्रणाम , रज्जन चाचा। एकाएक डब्बू की नींद खुल जाती है और वह फिर अपनी दवाई खाने मे जुट जाता है।
यूं थे तो वो भी एक आम आदमी लेकिन भतीजे भतीजियो ने उन्हे रज्जन चाचा बना दिया। स्वाधीनता संग्राम सेनानी के यहाँ जन्में राजेंद्र का बचपन बहुत संघर्ष से गुजरा, पांच भाईयों और एक बहन के बीच उनका नम्बर चौथा था। न बड़ो में गिनती थी और न छोटे भाई जैसा लाड प्यार पा सके। स्वाभिमानी पिता के आकस्मिक देहांत से, उन्हे समय से पहले बड़ा कर दिया। दो बड़े भाईयों की सरकारी नौकरी लग गई और वे दोनो बड़े भाई घर से पृथक हो गए। राजेन्द्र से बड़े भाई ने स्वर्गीय पिता की पत्रकारिता को आगे बढ़ाना शुरु कर दिया था और फिर वे भी एक पत्रकार बन गए थे । अब राजेंद्र को छोटे भाई, बहन और मां का ख्याल भी रखना था, पढ़ाई भी करना थी और साथ साथ बड़े भाई के साथ घर को भी चलाना था। वक्त बदला और समय के साथ राजेंद्र ने अपनी कालेज की पढ़ाई पूरी की। अब चाह थी कोई अच्छी नौकरी की।
संघर्षपूर्ण जीवन में राजेंद्र ने राज्य परिवहन में कंडक्टर की नौकरी भी की और कालेज के बगीचे में माली का काम भी किया और अंततः उसकी मेहनत रंग लाई और एक दिन राजेंद्र को जिसकी चाह थी, वही हुआ। राजेंद्र अब राज्य लोक सेवा आयोग की परीक्षा पास कर सेल्स टेक्स इंस्पेक्टर बन गए। घर की परिस्थिति भी अब सुधरने लगी थी । भरे पूरे घर में भतीजे भतीजियो की चहल पहल भी गूंजने लगी थी। चूँकि राजेन्द्र अब सरकारी नौकरी में आ गये थे इसलिए सबकी चाहते बढ रही थी और अब राजेंद्र भी भतीजे भतीजियो के रज्जन चाचा बन गए थे। कुछ भतीजे भतीजी उन्हे बड़े चाचा भी कहकर पुकारते थे। बड़ी भतीजी के ब्याह में उन्होने न जाने कितने कपड़े दिये, यह बात बहुत गर्व से उनकी मां हम सब नाती नातिनो को बड़े चाव से सुनाया करती थी। मंझले और संझले भाइयों की बेटियों की शादियों में उन्होने उस जमाने में लोहे की आलमारी दी जब उसे खरीदना आम आदमी का एक सपना हुआ करता था।
सबसे बड़ी बात तो यह थी कि दीपावली का त्योहार पूरा घर एक साथ मिलकर मनाया करता था और उस मौके पर सबको इंतजार रहता था सबके प्यारे " रज्जन चाचा " का। त्योहार से भी ज्यादा इंतजार रज्जन चाचा का हुआ करता था और होता भी क्यों न, रज्जन चाचा अपने साथ लाते थे, दो तीन बड़े बड़े थैले भरकर पटाखे, जो लक्ष्मी पूजन के बाद सबको बांटे जाते थे। समाजवादी तरीके से सबको बराबर बराबर पटाखे बांट कर दीपावली का पूरा आनंद लिया जाता था।
रज्जन चाचा के एक भतीजे ,जो उनके सबसे प्रिय हुआ करते थे, बताया करते थे कि उनके रज्जन चाचा के पास एक साइकिल हुआ करती थी जिसमें आगे टोकरी लगी हुआ करती थी, चाचा की जहां भी पोस्टिंग हुआ करती थी, मैं गर्मी की छुट्टियों में वहां जाया करता था, चाचा मुझे किराए की साइकिल दिला दिया करते थे लेकिन मैं चाचा की टोकरी वाली साइकिल ही चलाया करता था और चाचा को किराए की साइकिल चलाना पड़ती थी। गर्मी की छुट्टियां खत्म हुई, मैं वापस अपने घर आने की तैयारी कर रहा था, तभी चाचा ने पूछा कि अन्नू तुमको मैं हमेशा किराए की साइकिल दिलाया करता था और तुम मेरी साइकिल ले जाते थे, इसका राज तो बताओ। न चाहते हुए भी मुझे बताना पड़ा कि चाचा जी, इस छोटे से शहर में आपकी साइकिल जैसी बहुत कम साइकिल है और टोकरी लगी तो साइकिल एकाध ही होगी। जब भी मैं कहीं कोई चीज खाता पीता हूं, दुकानदार आपकी टोकरी लगी साइकिल को देखकर मुझसे पेमेंट नही लेते हैं।
अब रज्जन चाचा भी बड़े हो गए थे तो उनकी मां ने उनकी भी शादी धूमधाम से कर दी। फैमिली वाले होने के बावजूद भी रज्जन चाचा के दीवाली वाले थैले काफी सालों तक दीपावली की रौनक बनते रहे। समय धीरे धीरे अपनी गति से बीत रहा था, रज्जन चाचा भी अब चार बच्चों के पिता बन गए थे। तभी अचानक परिवार पर एक वज्रपात हुआ। रज्जन चाचा की जीवनसंगिनी , जिसे वो रजनी कहकर बुलाया करते थे, उनका एक छोटी सी बीमारी से देहांत हो गया और सदैव खुश रहने वाले रज्जन चाचा अब बिल्कुल अकेले हो गए। बच्चों ने हर तरीके से उन्हे खुश रखना चाहा लेकिन तभी उन पर एक और दुख का पहाड़ टूट पड़ा। यूनिवर्सिटी में पढ़ाई कर रही उनकी एकमात्र पुत्री का एक एक्सीडेंट में निधन हो गया। नितांत अकेले हो गए रज्जन चाचा । पत्नी के देहांत के बाद नाते रिश्तेदारों ने उनसे दूसरी शादी करने का भी दबाव डाला जिसे उन्होने एक दम खारिज कर दिया।
समय शनैशनैः बीतता जा रहा था। रज्जन चाचा के तीनो बच्चे भी बड़े हो गए थे। बड़े धूमधाम से उन्होने अपने तीनो लड़को की शादी की। जो घर कभी वीरान रहा करता था वहा अब तीन-तीन बहुओं की चहल पहल शुरू हो गई थी। समय पर रज्जन चाचा अब दादू की श्रेणी में आ गए थे। तीनो बहुओ ने उनकी लम्बी समय से छाई उदासी दूर कर दी थी। नाती नातिनो के धूम-धड़ाके से सारा घर और सारी कालोनी गूंजती रहती थी। रज्जन चाचा की पटना पोस्टिंग के दौरान उनके पैतृक घर के मूल कागज को प्राप्ति से लेकर मृत्यु पर्यन्त बंटवारे को लेकर लगे रहे, यहां तक कि एक बार उनके बड़े बेटे डब्बू ने उनसे कहा कि पटना के घर को लेकर आप इतने तनाव में रहते हो, क्यों न सारे भाइयों के विरुद्ध कोर्ट केस दाखिल कर दिया जाए तो उन्होंने डब्बू को सरेआम डांट-फटकार लगा दी और कहा था कि बंटवारा हो या नही हो , मेरे जीते जी मेरे भाईयों के विरुद्ध ऐसी कोई बात मन में भी नहीं लाना।
शनैः शनैः सभी भाई उम्रदराज होने लगे। सबसे बड़े भाई की मृत्यु तो काफी पहले हो गई थी। तीन भाई, मां, भाभियों का बिछुड़ना लगातार लगा रहा। रज्जन चाचा के परिवार में उनकी बहन और छोटे भाई की पत्नी बची हैं। लेकिन रज्जन चाचा जैसा दिलदार, भतीजे भतीजियो पर प्यार लुटाने वाला तो इस पीढी में कोई नही है। प्रणाम , रज्जन चाचा। एकाएक डब्बू की नींद खुल जाती है और वह फिर अपनी दवाई खाने मे जुट जाता है।

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